ताइर-ए-दिल जो तिरा ध्यान पकड़ लेता है चोंच में तख़्त-ए-सुलैमान पकड़ लेता है मेरे अंदर भी कोई शख़्स है रहता ऐसा चुप रहूँ तो वो गरेबान पकड़ लेता है जब दिल-ओ-जाँ लिए आता हूँ गली में तेरी कौन है जो मिरा सामान पकड़ लेता है पूछ लेता हूँ अगर प्यार है कितना मुझ से उठ के हाथों में वो क़ुरआन पकड़ लेता है यूँ तो मंज़िल मिरी लाहौर है लेकिन रह में गुजरांवाला है जो मेहमान पकड़ लेता है वस्ल-लम्हों में है आसान मोहब्बत करना हिज्र में क़ैस भी हो कान पकड़ लेता है लौटता हूँ तो सिसकते हैं दरीचे सारे आगे बढ़ता हूँ तो दरबान पकड़ लेता है महव हो जाऊँ जो मैं मिस्र के जल्वों में कभी मेरा दामन मिरा कन’आन पकड़ लेता है जब भी मिलता है मुझे इज़्न-ए-रिहाई 'सागर' फिर मुझे गोशा-ए-ज़िंदान पकड़ लेता है