तक़्सीम तुम मुताबिक़े-मेहनत न कर सके तस्लीम हम मुताबिक़े-क़िस्मत न कर सके जिन को तलाश मंज़िले-इंसानियत की थी गुमराह उन को अहल-ए-सियासत न कर सके तुझ पे कि जूठे हैं ये सभी लफ़्ज़ ख़ल्क़ के हम फ़ाश अपनी पाक मोहब्बत न कर सके हम आरियों से उनको बचाते रहे मगर वो आँधियों से अपनी हिफ़ाज़त न कर सके इक लौ हुए ख़याल तो कुछ रौशनी हुई जब तक शरर थे चारा-ए-ज़ुल्मत न कर सके तूफ़ान ज़लज़ला कभी सैलाब आ गया पुर-अम्न तो ख़ुदा भी हुकूमत न कर सके समझा कि तुम भी देख लो 'जानिब' जहान को वैसे ये काम ईसा से हज़रत न कर सके