तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है ख़याल हो कि नज़र आरज़ू से रौशन है जनम जनम के अंधेरों को दे रहा है शिकस्त वो इक चराग़ कि अपने लहू से रौशन है कहीं हुजूम-ए-हवादिस में खो के रह जाता जमाल-ए-यार मिरी जुस्तुजू से रौशन है ये ताबिश-ए-लब-ए-लालीं ये शोला-ए-आवाज़ तमाम बज़्म तिरी गुफ़्तुगू से रौशन है विसाल-ए-यार तो मुमकिन नहीं मगर नासेह रुख़-ए-हयात इसी आरज़ू से रौशन है