तलाश-ए-रहबर न ख़ौफ़-ए-मंज़िल न फ़िक्र कोई है जिस्म-ओ-जाँ की

तलाश-ए-रहबर न ख़ौफ़-ए-मंज़िल न फ़िक्र कोई है जिस्म-ओ-जाँ की
जुनूँ सलामत तो किस को पर्वा रहे वफ़ा के हर इम्तिहाँ की

जो तुम ने देखा है मुस्कुरा कर क़दम ज़माने के रुक गए हैं
उस इक निगाह-ए-करम से पहले कहाँ थी मुझ पर नज़र जहाँ की

बयान गरचे था दर्द दिल का मगर था कैफ़-ओ-असर से ख़ाली
जो नाम आया है उस में तेरा बढ़ी है लज़्ज़त भी दास्ताँ की

रविश पे महव-ए-ख़िराम हो कर जगाए क्या क्या न तुम ने जादू
कली में रंगत गुलों में निकहत न ज़ीनत ऐसी थी गुल्सिताँ की

जमाल-ए-जानाँ की जल्वा-गाहें जहाँ भी जाऊँ वहाँ पे पाऊँ
झुकाऊँ सर को जहाँ भी अपने वहीं पे चौखट है आस्ताँ की

कभी न इंसाँ के दिल में झाँका कभी न खोदा ख़ज़ाना-ए-दिल
ज़मीं के रुख़ से हटाए पर्दे तो बात की हम ने आसमाँ की

ज़रूर आएँगी फिर बहारें चमन में फिर रक़्स-ओ-रंग होगा
न बाद-ए-सर-सर के होंगे झोंके न यूरिशें होंगी फिर ख़िज़ाँ की

ये जानता हूँ कि उस का मुद्दत से तिनका तिनका बिखर रहा है
न जाने फिर क्यों ये याद पैहम है मेरे उजड़े से आशियाँ की

जो आरज़ू को 'हबीब' पुख़्ता तो क़ुर्ब-ओ-दूरी का फ़र्क़ कैसा
मिरे तसव्वुर ने ख़त्म कर दी जो दूरी हम में थी दरमियाँ की


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