तमाम रास्ता वो मुझ से दूर दूर रहा बहुत क़रीब से या'नी वो मुझ को जानता था वो एक चीख़ कि एक इक मकाँ को चीर गई ख़मोश शहर की नज़रों में सिर्फ़ मलबा था भरा भरा सा जो कल था वो आज ख़ाली है कि एक रात में आँगन का पेड़ सूख गया ख़मोश बैठे हैं मंज़िल पे सर झुकाए हुए कि झूटा सच्चा कहीं कोई हादिसा न हुआ सफ़र की राह चुनें भी तो क्या चुनें 'आबिद' इक आँख में है समुंदर इक आँख में सहरा