टूटती शाख़ पर वो बैठा था हँस रहा था घड़ी-भर ऊँचा था यूँ तो बैठा था मुतमइन छत पर हाँ मगर ज़लज़ले से डरता था जाने किस बात पर बिगड़ बैठे मैं तो ख़ुद से भी दूर बैठा था रोज़ कहता था कूदो कूद गए घर से इक साँस दूर दरिया था रह गईं राह में ही वो राहें बोझ जिन पर फ़लक फ़लक का था बिखरा आँधी में एक इक टीला रेत का ये तो हश्र होना था 'आबिद' उस की नज़र का था जादू वो जो जीने का हौसला सा था