तमाशा अहल-ए-मोहब्बत ये चार-सू करते दिल-ओ-दिमाग़ और आँखें लहू लहू करते वो रौशनी से भरी झील के किनारे पर शिकस्ता-रूह, दरीदा-बदन रफ़ू करते हमारे बारे में तफ़तीश करना चाहते थे तो जान-ए-जान परिंदों से गुफ़्तुगू करते जमाल-ओ-हुस्न से लबरेज़ जब ज़माना है तिरी बिसात ही क्या तेरी आरज़ू करते ज़मीं पे चाँद सितारे बिछा के ऐ 'हाशिम' फ़लक पे फूल सजाने की आरज़ू करते