वुस'अत-ए-आग़ोश-ए-आलम बे-कराँ होते हुए दर-ब-दर फिरते हैं हम सारा जहाँ होते हुए कोई माँगे के उजाले का भरोसा क्या करे हम ने देखा है चराग़ों को धुआँ होते हुए दे दिया है ख़ून-ए-दिल से जाँ-निसारी का सुबूत जब कभी देखा है उन को बद-गुमाँ होते हुए फ़ख़्र मत करना ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर दोस्तो अच्छे-अच्छों को है देखा बे-निशाँ होते हुए जंग-आमादा हुई जब सेहन-ए-गुलशन की हवा टुकड़े टुकड़े सब ने देखा आशियाँ होते हुए क्यों ज़लील-ओ-ख़्वार होते जा रहे हैं अहल-ए-हक़ दार तक जाने की लम्बी दास्ताँ होते हुए हम ने रक्खी है 'ज़की' महफ़ूज़ ग़म की आबरू मुस्कुराते हैं सदा दर्द-ए-निहाँ होते हुए