तन्हाई ने वो रक़्स-ओ-तमाशा किया कि वाह ऐसा जहाँ में इश्क़ ने रुस्वा किया कि वाह दुश्मन भी मेरी ख़ाक-ए-क़दम चूम कर गए ऐसी अना से मैं ने गुज़ारा किया कि वाह उस की जफ़ा को मैं ने यूँ बख़्शीं बुलंदियाँ उस को बना के देवता सज्दा किया कि वाह गिर्दाब-ए-वक़्त में मेरी कश्ती को देख कर अपनों ने मुस्कुरा के किनारा किया कि वाह ज़ख़्मों के हर भँवर में उभर आई कहकशाँ इक चारागर ने ऐसा मुदावा किया कि वाह अश्कों ने वो दिखाए कमालात इश्क़ में दीवार-ओ-दर को ख़ूब-रू सब्ज़ा किया कि वाह खुलने दिया न रंज का कोई भी मुद्दआ ऐसी अदा से इश्क़ का शिकवा किया कि वाह वो ख़ुशबुओं की मौज है फूलों की है अदा ऐसे मिरे नफ़स में बसेरा किया कि वाह देगा मिसाल वक़्त भी उस के कमाल की यूँ 'साहिबा' ने दश्त को दरिया किया कि वाह