वफ़ा के नूर से ख़ुद को सजा के बैठी हूँ किसी की याद में दुनिया भुला के बैठी हूँ क़मर को अक्स मिरा जब से कह दिया उस ने फ़लक पे जा के मैं नाज़-ओ-अदा से बैठी हूँ जुनून-ए-इश्क़ ने जोगन बना दिया मुझ को दयार-ए-यार पे सर मैं झुका के बैठी हूँ करो न ख़ाक पे मातम मिरी जहाँ वालों अना की आग में ख़ुद को जला के बैठी हूँ ग़म-ए-हयात मिरे दर पे कब ठहरता है क़रीब आ के मैं अपने ख़ुदा के बैठी हूँ हर एक नक़्श-ए-क़दम का ये मर्तबा है मिरे मैं दश्त-ओ-सहरा को गुलशन बना के बैठी हूँ वफ़ा पे उस की है क़ुर्बान दो-जहाँ 'रिंकी' जमाल-ए-यार पे हस्ती लुटा के बैठी हूँ