ताक़-ए-निस्याँ से पुराना सा दिया ले आए क़ाफ़िले वक़्त के आए तो उजाले आए इक मुअम्मा ही रही फिर भी हक़ीक़त उस की चलते चलते क़दम-ए-फ़िक्र में छाले आए उस की गलियों में है कुछ ऐसी कशिश ऐसा जमाल माह-ए-शब-ताब भी दस्तार सँभाले आए तुझ को देखा ही नहीं मौज-ए-बहाराँ ने कभी फिर कहाँ से वो तिरी तर्ज़-ए-अदा ले आए ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबें हैं बहुत बोसीदा कोई तूफ़ान न इस सम्त हवा ले आए नोक-ए-नेज़ा के हवाले तो किया सर हम ने कू-ए-क़ातिल से मगर हाथ बचा ले आए 'नूर' वो दश्त-ए-मसाफ़त भी अजब था कल रात जुस्तुजू में मिरी ख़्वाबों के रिसाले आए