ये तो दुनिया है ज़रूरत से मिला करती है एक माँ है जो मिरे हक़ में दुआ करती है वक़्त तो फूस पे रख देता है इक चिंगारी और बाक़ी जो बचे काम हवा करती है एक तिनका भी उलझ पड़ता है तूफ़ानों से इज़्ज़त-ए-नफ़्स हर इक शय में हुआ करती है दूसरा काम नहीं है कोई उस को शायद गुफ़्तुगू अपनी ये दीवार सुना करती है मेरे अंदर भी उतर जाती है गाहे-गाहे रौशनी यूँ तो दरीचे में रहा करती है सुब्ह होते ही चली जाए खंडर के अंदर ज़िंदगी रात को सहरा में फिरा करती है मेरी पलकों पे ठहर जाती है आकर सर-ए-शाम चाँदनी रोज़ नए ख़्वाब बुना करती है वो हवा है कि जो हर रोज़ चमन से आकर ख़ुशबुएँ शहर में तक़्सीम किया करती है राज़ ये खुल न सका किस लिए आख़िर ऐ 'नूर' हूक सी रोज़ मिरे दिल में उठा करती है