तसव्वुर में हमारे भी किसी का हुस्न पलता है तग़ज़्ज़ुल का चराग़ इस वास्ते आँखों में जलता है हमारे दिल में उठती हैं हवाएँ दर्द की जिस दम हमारे दिल में तख़लीक़ात का तूफ़ाँ मचलता है ज़माना है न जाने कब ये रुख़ अपना बदल डाले हवा पर इख़्तियार आख़िर कहाँ इंसाँ का चलता है फ़सीलों में मुक़य्यद है हमारी ज़िंदगी लेकिन परिंदे की तरह परवाज़ को ये दिल मचलता है मैं टकराता हूँ तूफ़ाँ से इसी ईमान पर 'बिस्मिल' मिरे हर अज़्म-ए-रासिख़ से हवा का रुख़ बदलता है