तस्बीह उन के नाम की पढ़ते हैं आम ख़ास राम-ओ-रहीम दोनों इसी के हैं नाम ख़ास अपना सा दिल समझ के किसी का न तोड़ दिल कहते हैं इस को है ये ख़ुदा का मक़ाम ख़ास मैं तो बुरा नहीं हूँ मुक़द्दर बुरा सही लेते हैं क्यों बुराई से मेरा वो नाम ख़ास जिस को वो चाहते हैं वो अच्छा है हर तरह कुछ चीज़ ज़ात-पात न तख़सीस-ए-आम ख़ास सरगोशियाँ रक़ीब से करता था नामा-बर उस फ़ित्ना-गर ने भेजा है कोई पयाम ख़ास वा'दे पे रह न उस बुत-ए-वा'दा-ख़िलाफ़ के ऐ दिल तू कर के बैठा है क्यों इंतिज़ाम ख़ास हर काम अपने क़ाबू तलब करना चाहिए डाले ख़ुदा किसी से भी कोई न काम ख़ास हर शेर तेरा क़ाबिल-ए-तारीफ़ है 'अता' इस्लाही शान रखता है तेरा कलाम ख़ास