तासीर के पर्दों को छू आई फ़ुग़ाँ मेरी अब अर्सा-ए-आलम में गूँजेगी अज़ाँ मेरी ऐ रहमत-ए-बे-परवा कुछ पास-ए-वफ़ा रखना ऐसा न हो महशर में खुल जाए ज़बाँ मेरी हर गाम पर इक फ़ित्ना उठता है क़दम लेने ये कौन सी मंज़िल में है उम्र-ए-रवाँ मेरी आँखें हों तो देख उठ कर कौनैन की हर शय को मैं तुझ को बताऊँ क्या मंज़िल है कहाँ मेरी वो दौर-ए-मोहब्बत भी था कितना बहार-आगीं फूलों में रही चश्म-ए-ख़ूनाबा फ़शाँ मेरी इस गर्दिश-ए-पैहम का निकलेगा न कुछ हासिल ऐ चर्ख़-ए-सुबुक-माया मिट्टी है गिराँ मेरी हर-गाम पर इक 'तुरफ़ा' उन्वान-ए-मोहब्बत है रुकती है कहाँ देखूँ अब तब-ए-रवाँ मेरी