तिरे बीमार-ए-ग़म की सोज़-ओ-सामानी नहीं जाती ये आलम है कि अब सूरत भी पहचानी नहीं जाती दिल-ए-नादाँ ये क्या ज़िद है कि खेलूँगा हसीनों में अरे कम-बख़्त तेरी अब भी नादानी नहीं जाती न जाने किस की ज़ुल्फ़ों का नज़ारा कर लिया मैं ने कि मेरे दिल की उलझन और परेशानी नहीं जाती वो लाया जाम साक़ी शैख़ जी थोड़ी सी पी भी लो अजी दो-चार घूँटों से मुसलमानी नहीं जाती जो दिल देता है 'शब्बर' आईना-रुख़ हुस्न वालों को समझ लो ज़िंदगी भर उस की हैरानी नहीं जाती