तेरे कूचे में जो हम बा-दीदा-ए-तर बैठते जोश-ए-तूफ़ाँ से ज़मीं में सैंकड़ों घर बैठते चारागर भी हम-नशीं था रात को नासेह भी था वर्ना बेताबी से हम क्या जाने क्या कर बैठते हो गई महफ़िल तिरी क्या बे-अदब बे-क़ाइदा जो खड़े रहते थे वो अब हैं बराबर बैठते जब किया शिकवा कि महफ़िल में रहे हम तुम से दूर उस ने झुँझला कर कहा क्या मेरे सर पर बैठते जिस की क़िस्मत में हो गर्दिश किस तरह बैठे कहीं हम से आवारा तिरे कूचे में क्यूँकर बैठते 'दाग़' तुम ने क्यों किया है नाम वहशत का ख़राब इस से तो बेहतर यही था चैन से घर बैठते