तेरी जफ़ा-ओ-ज़ुल्म का चर्चा कहाँ नहीं ऐसी कोई ज़मीं है जहाँ आसमाँ नहीं अल्फ़ाज़ से नहीं है मतालिब का कोई रब्त क्यूँकर न एक राज़ बने तेरी हाँ नहीं वो उन का राज़दार बने बज़्म-ए-नाज़ में जिस आश्ना-ए-दर्द के मुँह में ज़बाँ नहीं गुलचीन-ओ-बाग़बाँ भी हैं गुल भी हैं बाग़ में लेकिन ग़ज़ब तो ये है मिरा आशियाँ नहीं उर्दू उन्हीं की गोद में फूली फली 'रियाज़' जो लोग कह रहे हैं ये मेरी ज़बाँ नहीं