तेरी तलब में ऐसे गिरफ़्तार हो गए हम लोग ख़ुद भी रौनक़-ए-बाज़ार हो गए क्या ख़्वाब था कि कुछ नहीं ठहरा निगाह में क्या अक्स था कि नक़्श-ब-दीवार हो गए हद्द-ए-नज़र बिछा था तिरी दीद का समाँ जो रास्ते थे सहल वो दुश्वार हो गए उन को भी अपने नाम की हुर्मत अज़ीज़ थी जो तेरा साथ देने पे तय्यार हो गए बिफरा हुआ बदन किसी क़ातिल से कम न था हम भी वुफ़ूर-ए-शौक़ में तलवार हो गए गो अपने पास एक नज़र के सिवा न था हम हर बुत-ए-हसीं के ख़रीदार हो गए ये शहर ज़लज़लों के थपेड़ों से हिल गया क्या क्या अजब महल थे कि मिस्मार हो गए ख़्वाहिश की उलझनों पे कोई बस न चल सका दावे फुसून-ए-यार के बे-कार हो गए