था फ़ख़्र जिस पे मुझ को मिरी ज़ात की तरह बदला है वो भी सूरत-ए-हालात की तरह फ़िक्र-ए-मआ'श ज़ह्न पे जब से मुहीत है है दिन की रौशनी भी मुझे रात की तरह उम्मीद-ए-वस्ल का हुआ जो जाम चूर चूर बरसे हैं अश्क आँख से बरसात की तरह अब तक है याद आप का अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू मुझ को सुरूर-ओ-कैफ़ के नग़्मात की तरह तब ज़िंदगी का लुत्फ़ है या-रब जहान में उन की नज़र हो ऐन इनायात की तरह ग़श खा के आख़िरश वो गिरा दुश्मन-ए-ख़ुलूस मेरा जनाज़ा देख के बारात की तरह गुज़री है अपनी ज़िंदगी तेरे फ़िराक़ में बिस्मिल के कर्ब-दाश्ता लम्हात की तरह ये क्या हुआ कि दिल पे गुज़रने लगी गिराँ अब तो ख़ुशी की बात भी सदमात की तरह 'साइर' ये क्या हुआ है ज़माने की चाल को मिलता है अब ख़ुलूस भी सौग़ात की तरह