याद आया है घर लौट के सहरा भी बहुत दिन निकला न मिरे पाँव का काँटा भी बहुत दिन अंजान रहा मैं भी ग़म-ओ-दर्द से बरसों बेगाना रही मुझ से ये दुनिया भी बहुत दिन इक चाँद गहन मंज़र-ए-हर-शब पे हुआ बार ऐ ज़ौक़-ए-बसारत ये अंधेरा भी बहुत दिन मुमकिन ही नहीं वक़्त मिटा दे ये ख़द-ओ-ख़ाल हम ने उसे यकसूई से देखा भी बहुत दिन शोहरत भी मिली मुझ को तिरे शहर से लेकिन खाया है तिरी बज़्म में धोका भी बहुत दिन देखा है 'ज़िया' ख़ुद को ज़माने की नज़र से करता रहा बे-लुत्फ़ तमाशा भी बहुत दिन