था पस-ए-मिज़्गान-तर इक हश्र बरपा और भी मैं अगर ये जानता शायद तो रोता और भी पाँव की ज़ंजीर गिर्दाब-ए-बला होती अगर डूबते तो सत्ह पर इक नक़्श बनता और भी आँधियों ने कर दिए सारे शजर बे-बर्ग-ओ-बार वर्ना जब पत्ते खड़कते दिल लरज़ता और भी रौज़न-ए-दर से हवा की सिसकियाँ सुनते रहो ये न देखो है कोई याँ आबला-पा और भी हर तरफ़ आवाज़ के टूटे हुए गिर्दाब हैं रौशनी कम है मगर चलता है दरिया और भी सिर्फ़ तू होता तो तेरा वस्ल कुछ मुश्किल न था क्या करें तेरे सिवा कुछ हम ने चाहा और भी आरज़ू शब की मसाफ़त है तो तन्हा काटिए दिन के महशर में तो हो जाएँगे तन्हा और भी