ठहरने को है बस्ती के दर-ओ-दीवार पर पानी कि अब पत्थर में ढलती जा रही है मौज-ए-हैरानी ख़याल आता है शहर-ए-आरज़ू को छोड़ देने का बहुत दुश्वार हो जाती है जब भी कोई आसानी यक़ीं आया कि अर्ज़ां है मता-ए-लुत्फ़ दुनिया में नतीजा है अदू की क़द्र करने का पशेमानी मुसलसल बढ़ रहा हूँ जादा-ए-इस्लाम पर अब तक मगर ख़ुश आएगा किस को मिरा तुर्र-ए-मुसलमानी वही सूरत वही अत्वार-ए-नेक-ओ-बद वही लहजा वो पल-भर में कहीं से ढूँड लाया है मिरा सानी मिरे शे'रों में बहता है समुंदर मेरे विर्से का कि मैं गुलशन-ए-तराज़-ए-रंग-ए-सोहबाँ हूँ न ख़ाक़ानी जुदाई की कसक मिट जाएगी 'साजिद' मिरे दिल से अगर पहचान ले बढ़ कर मुझे वो दिलबर-ए-जानी