थी जिस की सल्तनत कभी हद्द-ए-निगाह तक मिलती नहीं है उस को कहीं अब पनाह तक कुछ नेक लोग नार-ए-हसद से सुलग उठे पहुँचा जो तेरा फ़ैज़ हम अहल-ए-गुनाह तक माँ बाप के वजूद से रौशन है इतना घर तारीक लग रहे हैं मुझे मेहर-ओ-माह तक बुत-ख़ाना-ए-दिमाग़ का जादू उतर गया पहुँचे जब अपने दिल की हसीं ख़ानक़ाह तक शतरंज खेलने में हुए इस तरह मगन दुश्मन की तेग़ आ गई आलम-पनाह तक बस इतना ही नहीं मिरा क़ातिल बरी हुआ मुजरिम बता दिए गए मेरे गवाह तक देना था जिन को शेर से पैग़ाम-ए-इंक़लाब महदूद हो चुके हैं फ़क़त वाह वाह तक सच बोलने के शौक़ में तोड़ा है एक दिल नेकी के रास्ते से गए हम गुनाह तक किन किन अज़िय्यतों से गुज़रना पड़ा हमें पाने से ले के आप को खोने की चाह तक तेरी सियाह चश्म से पुर-नूर एक राह आती है इस 'नबील' के क़ल्ब-ए-सियाह तक