थोड़ी देर ऐ साक़ी बज़्म में उजाला है जाम ख़ाली होने तक चाँद ढलने वाला है सुब्ह की हसीं किरनें नाग बन के डस लेंगी मैं इन्हें समझता हूँ मैं ने उन को पाला है बज़्म-ए-नौ की शम्ओं को ये ख़बर नहीं होगी किस ने ज़ुल्मत-ए-शब को रौशनी में ढाला है किस ने ख़्वाब-ए-इंसाँ के नुक़रई सफ़ीने को सख़्त-तर तलातुम की ज़द में भी सँभाला है लोग हँस के कह देंगे मैं ख़राब-ए-सहबा था मय-कदा ये ख़ुश होगा उस का बोल-बाला है मेरी फ़िक्र की ख़ुशबू क़ैद हो नहीं सकती यूँ तो मेरे होंटों पर मस्लहत का ताला है मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का इक 'सलाम' जाता है एक आने वाला है