तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ का घायल जिगर नहीं दिल ख़ाना-ए-ख़ुदा है किसी बुत का घर नहीं मैं ने कहा कि मैं फ़िदा क्या आप पर नहीं बोले वो हँस के हाँ मुझे इस की ख़बर नहीं उम्मीद ही नहीं है कि आएँ वो राह पर फूटा नसीब ही मिरा जब राह पर नहीं उल्फ़त की राह में तो भटकना ज़रूर है ये राह वो है जिस में कोई राहबर नहीं इंसाँ के दिल में दैर-ओ-हरम में कलीसा में वो कौन घर है जिस में तुम्हारा गुज़र नहीं ये भी तिरे जमाल का अदना जमाल है सूरज पे जो ठहरती किसी की नज़र नहीं ग़म की कटी जो रात तो राहत की सुब्ह है वो शाम शाम क्या है कि जिस की सहर नहीं छुप-छुप के जब दिखाते हो हुस्न-ओ-अदा-ओ-नाज़ पर्दे से फिर निकालते क्यों अपना सर नहीं 'संजर' लिखूँ जो नामा उन्हें ले के जाए कौन अपना तो कोई राज़-दाँ पैग़ाम्बर नहीं