तुम्हारे ज़ुल्म को भी हम वफ़ा समझते हैं अदा-ओ-नाज़ को अपनी क़ज़ा समझते हैं जुनून-ए-इश्क़ में हम क्या से क्या समझते हैं तुम्हारी शान को शान-ए-ख़ुदा समझते हैं हुज़ूर आप हैं हुस्न-ओ-जमाल के बंदे उसे न पूछिए हम और क्या समझते हैं परी से हूर से शम्स-ओ-क़मर से बेहतर हैं हम उन के हुस्न को शान-ए-ख़ुदा समझते हैं सितम-शिआ'र समझने लगे हैं हम तुझ को वो और हैं जो तुझे बा-वफ़ा समझते हैं ये राज़-ए-इश्क़ छुपाने से छुप नहीं सकता कि अब तो ग़ैर हमें आप का समझते हैं मरीज़-ए-इश्क़ हुए जम्अ' इस तमन्ना पर दर-ए-हुज़ूर को दारुश्शिफ़ा समझते हैं तिरे लबों में है इक राज़-ए-ज़िंदगी पिन्हाँ तिरी निगाह को तीर-ए-क़ज़ा समझते हैं हुआ ये हज़रत-ए-'संजर' को आज-कल सौदा किसी की याद को याद-ए-ख़ुदा समझते हैं