तिरछी नज़र से देखिए तलवार चल गई ज़ख़्म-ए-जिगर की राह से हसरत निकल गई मल-दल से वस्ल में तिरी महरम निकल गई चुटकी से ऐ परी बुनत अंगिया की मल गई बुलबुल को मस्त करती है ख़ुशबू लिबास की शायद नसीम इत्र-ए-बहार आज मल गई कंघी से इतनी देर में सुलझाई एक ज़ुल्फ़ ऐ जान आधी रात बखेड़े में ढल गई मज़मून तेरी ज़र्द हिना का न बंध सका मनहद की मछली हाथ में आ कर निकल गई इतना न कीजिए गुल-ए-रुख़्सार पर ग़ुरूर दो दिन की ये बहार है आज आई कल गई अंदाज़ तेरे हाल की सीखी जो रात को तेग़-ए-हिलाल कब्क पर ऐ माह चल गई सर से हमारे फिर गई शमशीर-ए-बर्क़-दम ऐ जान गिरते गिरते ये बिजली सँभल गई क्या साफ़ गाल हैं कि न ठहरे नज़र कहीं बे-साख़्ता निगाह हमारी फिसल गई रंग-ए-वफ़ा उड़ा दिल-ए-सख़्त-ए-रक़ीब से बोतल में ये शराब न ठहरी उबल गई क्यूँ चश्म-ए-मस्त हो गए जाम-ए-शराब आज क्या हो गया जो आँख तुम्हारी बदल गई मज़मून-ए-गर्म पर मेरे तअना न कर सके अंगुश्त-ए-ए'तिराज़ हरीफ़ों की चल गई मिट्टी मिरी ख़राब हुई राह-ए-इश्क़ में बर्बाद कर के उन की सवारी निकल गई मुझ से ही पूछता है मिरा नामा-बर पता ऐसी फ़िराक़-ए-यार में सूरत बदल गई ऐ शोख़ तेरी दस्त-दराज़ी से नश्शे में गर्दूं तक आफ़्ताब की पगड़ी उछल गई दे कर मय-ए-दो-आतिशा उस से लिपट गया दो आँचों में रक़ीब की क्या दाल गल गई जन्नत से बहरा-वर हों ज़फ़र-गंज ऐ 'मुनीर' जो जो थी आरज़ू मिरे दिल में निकल गई