तिरे क़रीब भी दिल कुछ बुझा सा रहता है ग़म-ए-फ़िराक़ का खटका लगा सा रहता है न जाने कब निगह-ए-बाग़बाँ बदल जाए हर आन फूलों को धड़का लगा सा रहता है हज़ारों चाँद सितारे निकल के डूब गए नगर में दिल के सदा झुटपुटा सा रहता है तुम्हारे दम से हैं तन्हाइयाँ भी बज़्म-ए-नशात तुम्हारी यादों का इक जमघटा सा रहता है वो इक निगाह कि मफ़्हूम जिस के लाखों हैं उसी निगाह का इक आसरा सा रहता है तुम्हारे इश्क़ ने 'मुमताज़' कर दिया दिल को ये सब से मिल के भी सब से जुदा सा रहता है