ये किस की याद का दिल पर रफ़ू था कि बह जाने पे आमादा लहू था चमकते हैं जो पत्थर से यहाँ अब उन्हीं पलकों में सैल-ए-आबजू था कशिश तुझ सी न थी तेरे ग़मों में लब-ओ-लहजा मगर हाँ हू-ब-हू था उजाले सी कोई शय बच गई थी उस इक लम्हे में जब मैं था न तू था थमी इक नब्ज़ तो उक़्दा खुला ये ख़मोशी का सरापा हा-ओ-हू था मिले अब के तो रोए टूट कर हम गुनाह अपनी सज़ा के रू-ब-रू था कभी ख़ुशबू हुआ करते थे हम भी कभी क़िस्सा हमारा कू-ब-कू था