तिरी फ़ुज़ूल बंदगी बना न दे ख़ुदा मुझे मैं क्या हूँ और तू समझ रहा है जाने क्या मुझे न तू नज़र में है कहीं न दश्त है न शहर है ये किस ख़ला में खींच लाए तेरे नक़्श-ए-पा मुझे तू अपना काम कर गुज़र मुझे कोई गिला नहीं जो वक़्त ने बना दिया हवा तुझे दिया मुझे तुझे ही सोचते हुए फिर आज सो गया हूँ मैं गुज़र तिरा हो ख़्वाब से तो नींद से जगा मुझे वहाँ से देखती है क्या हवा-ए-दश्त-ए-मारिया ज़रा मिरे क़रीब आ मैं ख़ाक हूँ उड़ा मुझे मैं जानते हुए भी सब ख़रीदता चला गया वो अश्क बेचता रहा बता के क़हक़हा मुझे मिले तमाम लोग ज़िंदगी की धूप-छाँव में बस एक 'इम्तियाज़' ही कहीं नहीं मिला मुझे