तिरी राह देखता मैं बुत-ए-बेवफ़ा कहाँ तक तिरा इंतिज़ार मैं ने किया सुब्ह की अज़ाँ तक वही राहज़न जिन्हों ने मिरे कारवाँ को लूटा ब-ख़ुदा उन्ही में शामिल है अमीर-ए-कारवाँ तक न उसे अगर बुझाया तो चमन को फूँक देगी यही आग जो अभी है मिरी शाख़-ए-आशियाँ तक किसी कोह पर गुज़रती तो वो रेज़ा रेज़ा होता जो मिरे चमन पे गुज़री है बहार से ख़िज़ाँ तक तिरा दिल भी जानता है कोई रब्त है यक़ीनन तिरे क़हक़हों से ले कर मिरे नाला-ओ-फ़ुग़ाँ तक मुझे साँप बन के डसने वहाँ शाख़ शाख़ लपकी मैं गया जो फ़स्ल-ए-गुल में कभी सह्न-ए-गुलिस्ताँ तक मिरे इश्क़ का फ़साना मिरे प्यार की कहानी वो है अब ज़बाँ ज़बाँ पर जो कभी थी राज़-दाँ तक ये मिरा वजूद ‘सलमाँ’ है निशाँ किसी के ग़म का मैं किसी का हो गया जब न रहा मिरा निशाँ तक