तिरी तलब में मुझे शर्मसार होना था रहीन-ए-मिन्नत-ए-लैल-ओ-नहार होना था जो मुब्तला-ए-ग़म-ए-रोज़गार होना था तो दिल पे अपने ज़रा इख़्तियार होना था फ़िराक़-ए-गुल में अगर दिल-फ़िगार होना था तो हर कली को मिरा ग़म-गुसार होना था जो मुझ को वक़्फ़-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार होना था तो अह्द-ओ-फ़े'ल का कुछ ए'तिबार होना था तुम्हें तो जल्वा-फ़गन बार बार होना था कि इस जहाँ को ज़रा साज़गार होना था