तिश्ना-लबों की नज़्र को सौग़ात चाहिए तेरे निसार थोड़ी सी बरसात चाहिए इतना भी मय-कदे पे न पहरे बिठाईए कुछ तो ख़याल-ए-अहल-ए-ख़राबात चाहिए आपस की गुफ़्तुगू में भी कटने लगी ज़बाँ अब दोस्तों से तर्क-ए-मुलाक़ात चाहिए मुद्दत से चश्म-ओ-दिल में कोई राब्ता नहीं क्या और तुझ को गर्दिश-ए-हालात चाहिए किस किस ख़ुदा के सामने सज्दा नहीं किया कुछ शर्म कुछ तो आबरू-ए-ज़ात चाहिए ज़िक्र-ए-परी-वशाँ के ज़माने गुज़र गए अब तो ग़ज़ल में हम्द-ओ-मुनाजात चाहिए इंसाफ़ की ये आँख ये सूरज की रौशनी यारब यही है दिन तो मुझे रात चाहिए हम चाहते हैं दहर में जीने का हक़ मिले उन को सुबूत-ए-फ़र्रुख़ी-ए-ज़ात चाहिए कुछ भी हो मस्लहत का तक़ाज़ा मगर नदीम जो दिल में हो ज़बाँ पे वही बात चाहिए ऐ ज़ुल्फ़-ए-नाज़ कोई हवा-ए-फ़ुसूँ का दाम अहल-ए-नज़र को सैर-ए-तिलिस्मात चाहिए ताब-ए-कमंद-ए-काकुल-ए-ख़म-दार होशियार खुल कर न हर किसी पे इनायात चाहिए 'ताहिर' जज़ा-ए-हिम्मत-ए-आली है ज़ुल्फ़-ए-यार ज़ुल्फ़ों से खेलने के लिए हात चाहिए