टूट जाए तो कहीं उस को भी चैन आता है दिल-ए-बे-ताब तड़प कर ही सुकूँ पाता है आप आते तो ठहर जाते ये लम्हे शायद वक़्त को यूँ भी गुज़रना है गुज़र जाता है इस तसव्वुर से कि शब भर तिरी रह देखेंगे शाम आती है तो दिल डूब के रह जाता है ग़म का एहसास भी गुम्बद की सदा हो जैसे दिल से टकराता है फिर दिल में पलट आता है वुसअ'त-ए-दीद निगाहों का मुक़द्दर न बनी आँख के तिल में तो आलम भी सिमट आता है अश्क थमते हैं तो हो जाती हैं आँखें ख़ूँ-रंग जाँ सँभलती है तो दिल ज़ब्त से मर जाता है कोई निस्बत है तेरे नाम से 'सीमीं' वर्ना यूँ किसी बात का इल्ज़ाम लिया जाता है