तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है ना-शनासा है तो फिर महरम-ए-पिन्हाँ क्यूँ है हिज्र के दौर में हर दौर को शामिल कर लें इस में शामिल यही इक उम्र-ए-गुरेज़ाँ क्यूँ है आज की शब तो बुझा रक्खे हैं यादों के चराग़ आज की शब मिरी पलकों पे चराग़ाँ क्यूँ है और भी लोग हैं मौजूद बयाबानों में दस्त-ए-वहशत में फ़क़त मेरा गिरेबाँ क्यूँ है दिल तो मुद्दत से कड़ी धूप में जलता है 'ज़हीर' आग बरसाता हुआ अब्र-ए-बहाराँ क्यूँ है