तू जब आँखों के दाएरे में नहीं रौशनी फिर किसी दिए में नहीं दर्द ही दर्द है निहाँ इस में और कुछ भी तो क़हक़हे में नहीं रब्त जिस से था ज़िंदगी जैसा अब वही मेरे राब्ते में नहीं हम को काग़ज़ पे वो उतारेगा हम तो वो हैं जो हाशिए में नहीं शक्ल से जानता हूँ मैं लेकिन आप का नाम हाफ़िज़े में नहीं देख कर पुर-फ़ितन शबाब तिरा कौन आएगा वसवसे में नहीं हूँ वहाँ पर कि हम-सफ़र तो कुजा ग़ैर भी कोई रास्ते में नहीं मैं जो हूँ तुम वही उतारो बस मुस्कराउँगा कैमरे में नहीं