तुझ में उस गुल से रंग-ओ-बू कम है वो ज़ियादा है इस में तू कम है हो कोई क्यों मुग़ाँ का मिन्नत-कश अपना पीने को क्या लहू कम है दिल से इंसान के ये होती कब हवस-ओ-हिर्स-ओ-आरज़ू कम है अहल-ए-ग़ैरत को ऐ फ़लक क्या कुछ मर्ग है मिन्नत-ए-अदू कम है देख कर उस बहार-ए-ख़ूबी को हो गया गुल का रंग-ओ-बू कम है बात बाक़ी है और कौन सी 'ऐश' क्या हुई उस से गुफ़्तुगू कम है