ज़ुल्मत-ए-शब ने किया चाक गरेबाँ अपना वो हुई सुब्ह वो रुख़्सत हुआ मेहमाँ अपना बढ़ गई और भी पहले से सिवा वहशत-ए-दिल कूचा-ए-ज़ुल्फ़ हुआ जब से बयाबाँ अपना वक़अत-ए-इश्क़-ए-बुताँ हम से तो पूछे कोई दीन अपना है यही और है ईमाँ अपना लाख समझाते हैं बहलाते हैं फुसलाते हैं कभी सुनता नहीं उन की दिल-ए-नादाँ अपना सैकड़ों ग़म हैं हमें सैकड़ों आज़ार हमें अब ख़ुदा ही है मोहब्बत में निगहबाँ अपना सुन के तम्हीद-ए-मोहब्बत ही वो नाराज़ हुए कहने पाए थे न हम हाल-ए-परेशाँ अपना फूल मुरझा गए बाक़ी न रहा रंग-ए-बहार बाग़बाँ देख के रोता है गुलिस्ताँ अपना अपनी सूरत का नज़ारा हमें कर लेने दो दिल किए देते हैं सौ जान से क़ुर्बां अपना देख कर हम को सर-ए-बज़्म वो हैं तेग़-ब-कफ़ अब कुछ अच्छा नज़र आता नहीं सामाँ अपना गिर्या-ए-दीदा-ए-उश्शाक़ को जब देखेंगे हज़रत-ए-नूह को याद आएगा तूफ़ाँ अपना क्या दिखाएँगे वो मुँह जा के ख़ुदा को 'हामिद' दिल बुतों से जो लगाते हैं मुसलमाँ अपना