टुक तू महमिल का निशाँ दे जल्द ऐ सूरत ज़रा कब तलक भटके फिरें अब हम से दीवाने ख़राब ये भी कुछ अंधेर है अब ज़ुल्फ़ तेरे दरमियाँ घर बसे शाने का और हों दिल के काशाने ख़राब दिल तो ख़ूँ हो बह गया और है जिगर बाक़ी सो अब उस की भी हालत लगी हम को नज़र आने ख़राब घर बसे तो घर में किस के जा बसा है बोल उठ मस्जिदें वीराँ हैं तुझ बिन और सनम-ख़ाने ख़राब शम्अ' भड़का शोअ'ला अपना आग दे फ़ानूस को कब तलक फिरते रहें गिर्द उस के परवाने ख़राब चुप हो अब तो ऐ 'रज़ा' इन ख़ाकियों पर रहम कर रोने से तेरे होए सब शहर-ओ-वीराने ख़राब