तुम ही से तवक़्क़ो नहीं औरों से गिला क्या कोई मिरा अपना हो तो क्या और ख़ुदा क्या धड़कन कभी धीमी है कभी तेज़ बहुत है ख़ुद से मैं यही पूछता हूँ मुझ को हुआ क्या इक बेकस-ओ-मजबूर है सरज़द हों गुनह क्या ना-कर्दा गुनाहों की भी मिलती है सज़ा क्या मैं ने तो तिरे प्यार में हर चीज़ लुटा दी जुज़ तेरी जफ़ाओं के मुझे और मिला क्या मैं तज्ज़िया करता हूँ हर इक बात का अक्सर सच और नहीं कुछ भी यहाँ तेरे सिवा क्या उल्फ़त को परखने के हैं मीज़ान अलग से इख़्लास मिरा चीज़ है क्या और वफ़ा क्या