तुम मिरे ख़्वाब-ए-परेशाँ का असर देखो तो मुज़्महिल सारा गुलिस्ताँ है इधर देखो तो लब-ओ-आरिज़ की क़सम जल्वा-ए-रक़्साँ की क़सम किस क़दर शोख़ है वो रश्क-ए-क़मर देखो तो शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी में दर-ए-मय-ख़ाना पर रख दिया फिर किसी मजबूर ने सर देखो तो तल्ख़ियाँ भूल के जज़्बात पे क़ाबू रख कर तुम ख़ुदा के लिए इक बार इधर देखो तो क्या सितम इस से ज़ियादा कोई हो सकता है मौसम-ए-गुल में कटे हैं मिरे पर देखो तो जिस से गुमराह ज़माने को ज़िया मिलती है इल्म-ओ-इरफ़ान-ओ-हिदायात का वो दर देखो तो सब परेशाँ हैं यहाँ कौन कहे उन से 'सहर' तुम ग़रीबों को कभी एक नज़र देखो तो