वो ज़िंदगी मिरे नज़दीक ज़िंदगी न हुई तमाम उम्र मयस्सर जिसे ख़ुशी न हुई हवस-परस्त निगाहों ने चश्म-ए-साक़ी से हज़ार जाम पिए दूर तिश्नगी न हुई दिखाए अहल-ए-सियासत ने सब्ज़ बाग़ मगर ख़िज़ाँ नसीब बहारों में ताज़गी न हुई हवा के रुख़ को जो पहचानने से क़ासिर हो मिरे ख़याल में वो चश्म-ए-आगही न हुई ज़माना लाख मुख़ालिफ़ रहा ब-फ़ैज़-ए-तलब हमारे ज़ौक़-ए-तजस्सुस में कुछ कमी न हुई अदू से तू ने तआ'वुन तो कर लिया लेकिन कभी जुनूँ से ख़िरद तेरी दोस्ती न हुई जो बाँटता था ज़माने को रौशनी कल तक उसी के घर में 'सहर' आज रौशनी न हुई