तुम मिरे पास रहो जिस्म की गरमी बख़्शो सर्द है रात बहुत घर से न बाहर निकलो दूधिया चाँदनी बिस्तर पे कहाँ से आई फिर कोई चाँद न निकला हो गली में देखो सर पे कब कौन कहाँ संग-ए-मलामत मारे पारसाओं से परे कल्बा-ए-अहज़ाँ में रहो कोई भौंरा न कहीं फूल का रस पी जाए अपनी मदहोश निगाहों के दरीचे खोलो जाने किस मंज़िल-ए-बे-नाम की जानिब निकलूँ अपनी तन्हाई से डरता हूँ मिरे साथ रहो बर्फ़ इक रोज़ पहाड़ों की पिघल जाएगी सर्द-मेहरी-ए-ज़माना की शिकायत न करो कितनी बीती हुई सदियों की कहानी हूँ 'शमीम' मेरे चेहरे की ये बिगड़ी हुई तहरीर पढ़ो