तुम्हारा क़ुर्ब-ए-मोहब्बत में क्या ज़रूरी था विसाल-ओ-हिज्र का इक सिलसिला ज़रूरी था जहाँ से हौसला हारा था वो तलातुम में सफ़ीना उस का वहीं डूबना ज़रूरी था वहीं पे चेहरे को अपने छुपा लिया तुम ने नुमाइशों का जहाँ आइना ज़रूरी था तुम उस मक़ाम से गुज़रे हो आँधियों की तरह तुम्हें ठहर के जहाँ सोचना ज़रूरी था ग़ज़ल के नाम को क्यों दाग़ दाग़ कर डाला कि अपनी ज़ात का रोना भी क्या ज़रूरी था