तुम्हारा नाम ले कर दर-ब-दर होता रहूँगा कि बरसों दाग़-ए-दिल अश्कों से मैं धोता रहूँगा तू ख़ुशियाँ ही समेट और ग़म मुझे दे दे मैं हूँ ना तिरे हिस्से की ग़मगीनी को मैं रोता रहूँगा जगाया मुंतज़िर आँखों ने बरसों अब ये सोचा कि मरने का बहाना कर के मैं सोता रहूँगा मुझे बस एक लम्हा सोचने दो ज़िंदगी भर किसे पाने की ख़ातिर मैं किसे खोता रहूँगा मिरे शाने थके हारे हैं 'आज़र' सोचता हूँ कहाँ तक अपने सर का बोझ मैं ढोता रहूँगा