तुम्हारी आरज़ू तुम से कहीं बढ़ कर हसीं निकली कि दुनिया की हर इक शय से यही दिल के क़रीं निकली मैं समझा याद भी तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पर तो आएगी मगर जब दिल टटोला है वहीं ये जागुज़ीँ निकली अभी कुछ और भी खेलो मिरे चाहत भरे दिल से अभी भी ज़ख़्म कम कम हैं अभी हसरत नहीं निकली सर-ए-महफ़िल किया रुस्वा मुझे तेरी मोहब्बत ने झुकी जो नाम पर तेरे वो मेरी ही जबीं निकली निगाहों ने तुझे ढूँडा तुझे दिल से पुकारा है नज़र आई न जो सूरत वो सूरत दिल-नशीं निकली है दो ही दिन की उम्र-ए-गुल मगर ज़िंदा-दिली देखो तबस्सुम लब पे रक़्साँ है फ़ज़ा हरगिज़ नहीं निकली जहाँ पर सरहदें दैर-ओ-हरम की ख़त्म होती हैं वहीं पर नूर-ए-ईमाँ है वहीं राह-ए-यक़ीं निकली हमारी ज़िंदगी दरिया की मौज-ए-मुज़्तरिब सी है कहीं उभरी कहीं मचली कहीं डूबी कहीं निकली उठा करती हैं मौजों की तरह ही हसरतें दिल में नई कितनी उभर आएँ जो इक हसरत कहीं निकली शब-ए-फ़ुर्क़त 'हबीब' अपना न कोई काम का निकला न आँसू बा-असर निकले न आह-ए-आतिशीं निकली