उफ़क़ को तकती हैं मुद्दत से बे-शुमार आँखें सहर का ख़्वाब लिए सब उमीद-वार आँखें मैं जानता हूँ कि हरगिज़ न आएगा अब वो निभाए जाती हैं पर फ़र्ज़-ए-इन्तिज़ार आँखें वो देख पाए ज़माने को मेरी नज़रों से उसे ऐ काश मिरी दे सकूँ उधार आँखें मुझे दिलाती हैं जंगल में होने का एहसास ये शहर वालों की अय्यार-ओ-होशियार आँखें बिछड़ते वक़्त वो रोया तो था मगर 'राक़िम' मसर्रतों में भी होती हैं अश्क-बार आँखें