उफ़ुक़ पर तुलू-ए-सहर देखते हैं बस इक ख़्वाब है रात भर देखते हैं ज़मीं पर तो ख़ाना-बदोशी है अपनी फ़लक से परे अपना घर देखते हैं हमारी नज़र आख़िरी दाव पर है अभी ज़ेर हैं पर ज़बर देखते हैं ज़बाँ और ही कुछ बयाँ कर रही है हम अहल-ए-नज़र हैं नज़र देखते हैं बहुत टूट कर हम ने रिश्ते निभाए ज़रा एक दिन तोड़ कर देखते हैं अब आईना हाथों में रखते नहीं हम हथेली पे दस्तार-ओ-सर देखते हैं हैं 'इक़बाल' कुछ ऐसे मंज़र भी जिन को नहीं देखना था मगर देखते हैं