वो पुराना शजर गिरा ना भई इक परिंदा था उड़ गया ना भई जुर्म किस का है कौन मुजरिम है मिल रही है मुझे सज़ा ना भई तू ने तलवार हाथ में क्यों ली तू कबूतर उड़ा उड़ा ना भई मैं दिया हूँ कि रौशनी बाँटूँ तू हवा है तो आज़मा ना भई इक ज़माना था मैं ज़माना था अब ज़माना बदल गया ना भई तेरा लश्कर मनात-ओ-'उज़्ज़ा का मेरा अपना है इक ख़ुदा ना भई हम ने दिल में जिसे बसाया था आस्तीनों में पल रहा ना भई ज़िंदगी क्यों सुकूत-ए-साहिल है फिर कोई मौज उठा उठा ना भई